Kalidas ki kahani Hindi me – एक बार की बात है जब कालिदास जी को बहुत अहंकार हो गया कि उनके पास सभी प्रश्नों के उत्तर है।
वह एक गाँव से गुजर रहे थे, उन्हें प्यास लगी तो उन्होंने एक घर के द्वार पर खड़े होकर आवाज लगाईं “माते, पानी पिला दीजिए, बड़ा पुण्य होगा।”
स्त्री बोली “बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं, पहले अपना परिचय दो?”
कालिदास ने कहा “मैं पथिक हूँ, कृपया पानी पिला दें।”
स्त्री बोली “तुम पथिक कैसे हो सकते हो? पथिक तो केवल दो ही हैं सूर्य व चन्द्रमा, जो कभी रुकते नहीं, हमेशा चलते रहते हैं। तुम इनमें से कौन हो, सत्य बताओ?”
कालिदास ने कहा “मैं मेहमान हूँ।”
स्त्री बोली “तुम मेहमान कैसे हो सकते हो? संसार में दो ही मेहमान हैं, पहला धन और दूसरा यौवन, इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम?”
कालिदास बोले “मैं सहनशील हूं।”
स्त्री ने कहा “नहीं, सहनशील तो दो ही हैं। पहली धरती जो पापी, पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है, वह बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है, दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल दे हैं। तुम सहनशील नहीं हो। सच बताओ तुम कौन हो?”
कालिदास बोले “मैं हठी हूँ।”
स्त्री बोली “फिर से झूठ। हठी तो दो ही हैं, पहला नाख़ून और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं। कृपया सत्य कहें, कौन हैं आप?”
अब कालिदास पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके थे। परंतु उन्होंने हार नहीं मानी।
कालिदास ने कहा “फिर तो मैं मूर्ख ही हूँ।”
स्त्री ने कहा “नहीं, तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो। मूर्ख तो दो ही हैं, पहला वह राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है और दूसरा जिसको यह भी याद नहीं कि एक दिन उसकी मृत्यु निश्चित है परंतु फिर भी पाप करता है।
कालिदास जी के पास अब बोलने के लिए कुछ नहीं था और अंततः अपनी हार मानकर वे वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और बोले “मात, तुम जीतीं और मैं हारा।
फिर वृद्धा ने कहा “उठो वत्स।”
वृद्धा की आवाज़ सुनकर कालिदास जी ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी जिन्हे देखकर कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए।
माता ने कहा “शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार। तुमने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे, इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए यह स्वांग करना पड़ा।”
कालिदास जी को अपनी गलती समझ में आ गई और तभी कालिदास जी का स्वप्न टूट गया और वह इधर उधर देखने लगे।
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि जहाँ भी ‘मैं’ होता है वहीँ अहंकार का जन्म होता है और अहंकार तो बड़े-बड़े राजा महाराजाओ का भी नहीं रहा।
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