Raja Rani story in Hindi – एक बार की बात है जब एक राज्य में रामनपाल नाम के राजा राज करते थे।
उनकी पत्नी का नाम सुंदरी था। उनका जन्म राजवंश में हुआ था। महल में सुख सुविधाओं का कोई अभाव न था । सेवा के लिए बहुत-से दास दासियाँ थीं।
उनके चारों ओर सुख-ही-सुख था । दुःख क्या होता है, इस बात को वे जानती ही नही थीं। मोहिनी बहुत अधिक सुंदर थीं। राजा उनसे अथाह प्रेम करते थे।
उनके मुख से बात निकलने भर की देर थी, कि उसके पूरा होने में देर नहीं लगती थी। दिसंबर का महीना था, कड़कड़ाती ठंड पड़ रही थी। एक दिन रानी ने नदी में स्नान करने का निश्चय किया। राजा ने आज्ञा दी
कि नदी की ओर जाने वाले सारे मार्ग रोक दिए जाएँ और सभी घाट खाली कर दिए जाएँ। आदेश होते ही सभी मार्ग रोक दिए गए। नदी के तट व घाट निर्जन हो गए।
जो लोग घाटों के पास झोपड़ियाँ बनाकर रह रहे थे वे भी उन्हें छोड़कर चले गए। अब वहाँ केवल पक्षियों का कलरव सुनाई दे रहा था। रानी अपनी सखियों के साथ घाट पर पहुंची। नदी के तट पर उनका हास-परिहास गूंजने लगा।
उस समय पूर्व दिशा में सूर्य उग रहा था। रानी ने अपनी सखियों के साथ नदी की झिलमिल करती धारा में स्नान किया। पानी बहुत ठंडा था।
ठंडे पानी में स्नान करने के कारण रानी बुरी तरह ठिठुर गईं और थर-थर काँपने लगीं। कँपकँपाते होठो से उन्होंने कहा, मैं ठंड सेमरी जा रही हूँ। जल्दी आग जलाओ और मेरे प्राण बचाओ।
रानी की आज्ञा पाकर, सखियाँ पास के जंगल से लकड़ियाँ लेने जाने लगीं।
रानी ने कहा, इतनी दूर कहाँ जा रही हो? देखों, पास ही फूस की झोंपड़ियाँ हैं, इसी में आग लगा दो । किसी तरह इस ठंड से तो छुटकारा मिले। यह सुनकर एक सखी ने कहा महारानी ऐसा न करें।
यह झोंपड़ी न जाने किस गरीब की होगी। इसमें न जाने कौन संन्यासी रहता होगा। झोंपड़ी के जलने से वह निराश्रय हो जाएगा। इस ठंड में वह बेचारा कहाँ जाएगा? दासी की बात सुनकर
रानी को क्रोध आ गया। वे चिल्लाकर बोली, दूर हो जाओ। फूस की इस पुरानी झोंपड़ी की तुम्हें इतनी चिंता है और मेरी कुछ भी नहीं । मेरी आज्ञा का तुरंत पालन करो।
रानी का हठ देखकर, सखियों ने झोंपड़ी में आग लगा दी। झोंपड़ियाँ धू-धू करके जल उठी। आग की लपटें आकाश छूने लगीं। नदी के किनारे खड़े पेड़ों पर बैठे हुए पक्षी, कोलाहल करते हुए आकाश में उड़ गए।
आग की चिनगारियाँ एक झोपड़ी से दूसरी झोपड़ी पर गिरने लगी। आग चारों ओर फैल गई। थोड़ी ही देर में घाट की सभी झोंपड़ियाँ जलकर राख हो गई।
ठंड से कांपती रानी को, आग की लपटों की गरमी बहुत अच्छी लगी। आग तापकर रानी अपनी सखियों के साथ हास-परिहास करती हुई राजमहल में लौट आईं। अगले दिन, राजा मोहनपाल अपनी राजसभा में बैठे ही थे
कि जिनकी झोंपड़ियाँ रानी ने जलवा दी थीं, वे राज दरबार में आ पहुँचे। रोते हुए उन्होंने राजा से अपनी दुख भरी कहानी सुनाई। अपनी प्रजा की बातें सुनकर, राजा का सिर लज्जा से झुक गया।
उनका चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। वे सभा से उठकर, एकदम राजमहल में चले गए। रोषपूर्ण स्वर में राजा ने कहा, रानी! तुमने निर्दोष दीन-दुखियों के घर जला दिए । यह तुम्हारा कैसा राजधर्म है।
यह सुनते ही रानी रूठकर बोली, उन फूस की पुरानी टूटी-फूटी झोंपड़ियों को, आप घर कह रहे हैं। उनके न रहने से किसी को क्या हानि हो सकती है? और अगर होगी भी, तो कितनी ।
अपनी रानी के एक क्षण के प्रमोद के लिए तो, लोग न जाने कितना धन खर्च कर डालते हैं और आप घास-फूस की झोंपड़ियों के लिए इतना क्रोध कर रहे है। राजा ने दासियों को रानी के सभी राजसी वस्त्र व
आभूषण उतारने व भिखारिन के कपड़े पहनाने को कहा। राजा की आज्ञा से दासियों ने, महारानी के राजसी वस्त्र और आभूषण उतार लिए और भिखारिन के कपड़े पहना दिए।
रानी को राजमहल से बाहर ले जाकर, राजा ने कहा, जाओ दीन होकर घर-घर भीख माँगो। तुमने अपने एक क्षण के सुख के लिए, जिन गरीब लोगों की झोपड़ियों को जला दिया था, तुम्हें उन्हें बनवाना होगा।
मैं तुम्हें एक वर्ष का समय देता हूँ। एक वर्ष बाद तुम राजसभा में आना और सबको बताना, कि दीन की झोंपड़ी का क्या मूल्य है। रानी एक वर्ष तक राजमहल से बाहर रहीं।
गरमी, सर्दी, और वर्षा सहते हुए, उन्होंने कठिन परिश्रम किया। तब जाकर पूरे एक वर्ष में, वे झोपड़ियाँ बनकर तैयार हुईं। अब रानी को झोंपड़ी का वास्तविक मूल्य समझ में आ गया था।
रानी ने अपनी गलती के लिए राजा से क्षमा माँगा और राजा ने भी रानी को क्षमा करते हुए उन्हें महल में वापस ले लिया और आजीवन उन्हें अपनी पत्नी बनाकर उन्हें सम्मानपूर्वक अपने साथ रखा।
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