Sadachar ka mahatva – एक बार की बात है जब राजपुरोहित देवदत्त ने सोचा कि राजा ब्रहमदत्त मेरा बहुत सम्मान करते हैं।
यह सम्मान मेरे ज्ञान का है या सदाचार का, मुझे इसकी पहचान करनी चाहिए।
एक दिन राजसभा से लौटते हुए देवदत्त कोषागार के पास से निकल रहा था। उसने चुपचाप एक सिक्का उठाकर अपने पास रख लिया।
कोषाध्यक्ष यह देखकर हैरान हुआ, वह सोचने लगा, देवदत्त जैसे महान व्यक्ति ने सिक्का क्यों उठाया होगा और उठाया है तो अवश्य कोई प्रयोजन होगा।
आज हो सकता है जल्दी के कारण कुछ नहीं बताया, बाद में बता देगा।
दूसरे दिन भी देवदत्त ने यही किया। कोषाध्यक्ष ने आज भी धैर्य बनाए रखा।
तीसरे दिन भी देवदत्त ने मुट्ठी भरकर स्वर्ण मुद्राएं उठा लीं। अब कोषाध्यक्ष से नहीं रहा गया। उसे दाल में कुछ काला नजर आने लगा। उसने तत्काल सिपाहियों को बुलाकर देवदत्त को गिरफ्तार कर लिया।
राजा ने गुस्से में आकर देवदत्त का हाथ काटने का फरमान भी सुना डाला।
फिर राजा ने देवदत्त से पूछा कि देवदत्त, तुम राज्य में इतने सम्माननीय हो, मै भी तुम्हारा इतना सम्मान करता हूँ, फिर तुमने ऐसा कैसे कर लिया?
फैसला सुनने के बाद देवदत्त मुस्कराकर बोला : मैंने धनवान बनने की इच्छा से चोरी नहीं की थी महाराज। मैं तो बस यह जानना चाहता था कि आप मेरा सम्मान मेरे ज्ञान के कारण करते हैं या मेरे सदाचार के कारण?
बस मैंने एक परीक्षा ली है और मैंने पाया कि मेरा ज्ञान तो जितना कल था उतना आज भी है। लेकिन दो दिन में फर्क सिर्फ इतना आया है कि मेरा सदाचार खंडित हुआ है, जिसके कारण मुझे सजा मिली है।
राजा को पूरा माजरा समझ में आ गया। उन्होंने देवदत्त को सम्मान सहित मुक्त कर दिया।
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