एक बार की बात है जब गुजरात के सूरत शहर में किशनलाल नाम का एक व्यापारी रहता था। उसका हिरे का व्यापार था। उसका व्यापार दुनिया के कई देशों में फैला हुआ था।
पूरे सूरत शहर में उसका मान और सम्मान था। किशनलाल के दो बेटे थे जिनका नाम था हरीलाल और मोहनलाल। हरीलाल को धन और प्रतिष्ठा का बहुत घमंड था और साथ ही साथ उसमे इर्ष्या और बईमानी जैसे अवगुण भी थे,
जबकि मोहनलाल एक सुलझा हुआ और सीधा-साधा व्यक्ति था। समय के साथ-साथ किशनलाल की उम्र बढ़ती जा रही थी। ऐसे में उनके दोनों बेटों ने व्यापार में पिता का अधिक से अधिक हाथ बटाना शुरू कर दिया था।
कुछ समय के पश्चात किशनलाल चल बसे और व्यापार का पूरा भार हरीलाल और मोहनलाल के कंधों पर आ गया। बड़ा भाई होने के नाते हरीलाल ने व्यापारिक निर्णयों में अपनी मर्जी चलानी शुरू कर दी।
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हरीलाल बईमानी और मक्कारी भरे फैसले भी लेने लगा। असली हिरे के नाम पर वह नकली हिरे का व्यापार करने लगा, जिससे उसका मुनाफा अत्यधिक बढ़ने लगा।
इस मुनाफे से उसका बाकी बचा चरित्र भी काला हो गया और अत्यधिक धन के घमंड में वह परिवार में उन्मादी जैसा व्यवहार करने लगा। वही दूसरी तरफ सीधे और सुलझे हुए मोहनलाल को
शुरू-शुरू में तो हरीलाल की बईमानी का पता नहीं चला, परन्तु जब उसने उसके व्यवहार में परिवर्तन देखा तो पूरी स्थिति को समझने में उसे ज्यादा देर नहीं लगी। हरीलाल की करतूतों से मोहनलाल को बड़ा दुःख हुआ।
उसने हरीलाल को समझाने और सही रास्ते पर लाने की कोशिश भी की, परन्तु वह असफल रहा और उल्टे हरीलाल, मोहनलाल से नाराज हो गया और व्यापार में बंटबारे की बात कह दी।
मोहनलाल ने गुस्से में बटवारे की बात पर सहमति जाता दी। कुछ दिन बात बटवारे की प्रक्रिया शुरू हुई तो हरीलाल ने बटवारे में भी बईमानी करते हुए साजिश के तहत घर में कलह का माहौल पैदा किया और
अंततः सफल होते हुए मोहनलाल के हिस्से के व्यापार पर भी कब्ज़ा कर लिया। हरीलाल के व्यव्हार से दुखी होकर मोहनलाल ने शहर में दूसरी जगह अपना ठिकाना बनाया और अपना खुद का हिरे
का व्यापार नए सिरे से शुरू किया। ईमानदारी की नींव पर शरू हुआ मोहनलाल का व्यापार जल्द ही चल पड़ा। एक तरफ जहाँ मोहनलाल की ख्याति देश और विदेश में बढ़ने लगी,
नकली हिरे का व्यापार करने के कारण रत्न बाज़ार में हरीलाल की साख को गिरने लगी और उसके व्यापार की सीमा कम होने लगी, अंततः नौबत यहाँ तक आ गई कि
अपने शहर का भी कोई व्यापारी हरीलाल का नाम लेने से भी डरने लगा। अब तो नौबत यहाँ तक आ गई कि हरीलाल को धन के अभाव में अपना घर, दूकान, सामान तक बेचना पड़ रहा था।
जल्दी ही हरीलाल के हाथ से सबकुछ निकल गया और वह परिवार सहित सड़क पर आ गया। अब हरीलाल को अपने किए पर पछतावा हो रहा था, परन्तु उसके भाग्य ने जो खेल खेला था, उससे आसानी से पीछे आना उसके लिए संभव नहीं था।
दूसरी तरफ मोहनलाल के भाग्य और कठिन परिश्रम का खेल था जिसकी बदौलत वह रंक से राजा बन गया था। जब हरीलाल की बदहाली की खबर मोहनलाल को लगी तो उसे बड़ा दुःख हुआ,
पुरानी बातों को भूलकर वह भागा-भागा अपने बड़े भाई हरीलाल के पास पहुंचा और हरीलाल के लाख मना करने के बाद भी उसे परिवार सहित अपने पास अपने घर ले आया।
यह भी भाग्य का ही खेल था कि जिस भाई के साथ हरीलाल ने दुर्व्यवहार कर उसे सड़क पर पहुंचा दिया था, वही भाई आज उसे सड़क से उठाकर अपने घर में ले आया था।
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि भाग्य कब किसके साथ क्या खेल-खेल दे, इसका अनुमान कोई नहीं लगा सकता, इसीलिए हमें अच्छे कर्म करते रहना चाहिए, क्या पता कल भाग्य आपके साथ क्या खेल-खेल जाये।